मन के मोती

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मै एक ऐसा भारत बनाउंगा जिसमे गरीब लोग भी अनुभव करेंगे की यह उनका देश है। जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है, जिसमे ऊंच-निच नही होगी, जिसमे सभी मिलजुल कर रहेगे । -महात्मा गांघी

दुख पर तरस खाना मानवीयता है, दू:ख दूर करना देवता तुल्य है.


तीन सबसे बड़ी उपलब्धिया जो मनुष्य को दी जा सकती है, वे है
शहीद, वीर और संत


लिज्ज्त और इज्जत

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सारी दुनिया में आर्थिक स्लोडाउन का शोर हो और बडी-बडी कम्पनिया और बैंको पर संकट मंडरा रहा हो , तब किसी सहकारी महिला उधम के सफल ५० वर्ष पुरे होने कि खबर से खुशी होती है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड कोऔपरेटिव से स्वावलम्बन ,सहकरिता और फलसफे को सीखा जा सके इसलिऐ "मुम्बई टाईगर" के ब्लोग पर प्रसारित कर रहे है ।

कभी ८० रुपये उधार ले कर शुरु किया गया महिलाओं का यह सयुक्त उद्यम आज ५०० करोड रुपये के सालाना कारोबार तक पहुच चुका है। यह करीब ४५ हजार अनपढ, अल्पशिक्षित महिलाओ कि रोजी रोटी का जरिया बना हुआ है। यह उल्लेखनिय है कि अपनी तमाम सफलताओ के बावजुद आज भी यह कुटीर उधोग ही है। सैकडो करोड के ट्र्नऑवर के बावजुद फिलहाल खुद को कॉरपोरेट ढाचे मे बदलने कि इसकी कोई योजना नही है। यहॉ आज भी मशीन का इस्तेमाल नही होता है । ताकि उनकी अनपढ, अकुशल महिला पार्टनरो का रोजगार बरकरार रहे। श्री महिला गृह उधोग ने स्थापित चाल से उल्टे वे सारे कारनामे कर दिखाऐ जिन्हे उधमिता कि आधुनिक परिभाषाओ मे पिछडा हुआ माना जाता हो ; लिज्जत पापड उधोग ने मशीनो और कॉरपोरेट कल्चर से दुरी भले ही बनाई, पर क्वालिटी, स्वाद,और हाइजिन के मामले मे कोई समाझोता नही किया।

महिलाओ को आर्थिक आजादी और इज्जत कि जिन्दगी देने वाले श्री महिला गृह उधोग से लेकर अमूल,जैसी दुसरी सहकारी सस्थाई और मुम्बई के डिब्बेवालो कि सफलताए आज के दोर मे बडा सबक है उन्ह पढी लिखी महिलाओ के लिए जो सिर्फ महिलाओ कि भलाई के लिऐ झंडे उठाऐ घूमती है और सिर्फ बाते करती है या सजिंदा विषयो को उछालकर राजनिति करती है। ईमानदारी से अगर महिलाओ के लिऐ कुछ करना है तो श्री महिला गृह उधोग से सिख लेनी चाहिऐ।

श्री महिला गृह उधोग से लेकर अमूल,जैसी सहकारी सस्थाऐ कामयाबी मुह नही चिढाती, बल्कि आधुनिक गला काट कॉरपोरेट कल्चर को यह सिखाती है कि अततःमानविय मुल्य ही किसी बिजनेस को लम्बे समय तक बाजार मे और ग्राहको के दिलो मे बनाऐ रख सकती है।

महिला गृह उधोग मुम्बई मे स्थित है; इसका कोई मालिक नही है इसमे कोई कर्मचारी नही है सभी महिलाऐ मिलजुलकर अपना काम अनुभव के हिसाब से सचालित करती है ४५००० महिलाऐ सभी मालिक भी है तो सस्था के एम्पलोई भी।

"आज "हे प्रभु यह तेरापंथ" एवम् "मुम्बई टाईगर" इस सस्था को सैल्यूट करता है।

विशेष आज से समसमायिकी एवम जवलंत मुदो पर , सभी तरह के सामाजिक गैर सामाजिक विषयो पर लेख विचारो कि प्रस्तुति "मुम्बई टाईगर" पर होगी अबतक "हे प्रभु यह तेरापंथ' पर उपरोक्त लेख, आलेख, कविता, सामजिक, राजनिति,अन्य प्रसारित हुआ करता था। "हे प्रभु यह तेरापंथ' ब्लोग चुकि धार्मिक अवधारणा लिऐ बना था। किन्तु इस पर अन्य विषयो पर भी चर्चा होती रही है चुकि "हे प्रभु यह तेरापंथ' नाम धर्म और विश्वास से जुडा है। "हे प्रभु" ब्लोग पर अबसे विवास्पद लेखो को प्रसारित नही किया जाएगा ऐसे मे अब से सारे लेख, विचार, मुम्बई टाईगर पर प्रकासित हुआ करेगे। "हे प्रभु यह तेरापंथ' अब धार्मिक, विज्ञानिक, और गैरविवादित मुदो पर ही बात होगी। आपको जो असुविधा हुई हमे खेद है। "हे प्रभु यह तेरापन्थ' कि तरह ही मुझे यानी "मुम्बई टाईगर" को आप सभी के प्यार आर्शिवाद कि अपेक्षा है। धन्यवाद॥॥"

"हे प्रभु यह तेरापन्थ'

मुम्बई टाईगर

वचन सम्भारि बोलिये, वचन के हाथ ना पाव। एक वचन ओषद करे एक करेगो घाव॥

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वचन सम्भारि बोलिये

आज मै क्या लिखू ? प्रतिदिन लिखना जरुरी होता है और सप्ताह मे एक दो सभाओ मे बोलना ही पडता है। बातचीत मे दिन भर बोलता ही रहता हू। लिखना और बोलना-बोलना और लिखना, एक आदत जैसी बन गई है। कई मर्तबा लोग पुछते है - " आप क्या व्यापार करते है ? कल मैने एक सभा मै सहज ही कह दिया कि-" शब्दो का व्यापर करता हू अर्थात शब्द बोलता हू, शब्द लिखता हू और शब्द बेचता हू।

रात घर आया- बिस्तर पर जाते ही ,मेरे बोले शब्द मुझे ही काटने लगे थे। कई तरह कि वैचारिक धाराऐ मष्तिष्क को कुरेद रही थी। मेरी खोपडीयॉ मे सैकडो तरह कि बाते सोच ली। मैने स्वय समाधान लेते हुऐ सोचा,

"शब्दो का यह व्यापार क्या मै अकेला करता हू? मेरी तरह हजारो लोगो ने भी तो शब्दो का व्यापार जमा रखा है। अनेक दुकाने है (ब्लोग, पत्र, पत्रिका), अनेक महाजन। अब तक तो मेरे दिमाग मे सभी ब्लोगो मे दुकान कि तस्वीर बना ली, और (पुरुष बन्धू) ता.... शा..... उ..... भा..... ज्ञा.... अ.... सु.... शि.... अर.... द्वे... कु... (महीला) लाव...... अल..... सुजा...... रन्ज...... लव...... आदि महाजन के रुप मे दिख रहे थे।

हम सभी के अलग अलग मन्च है, भिन्न भिन्न श्रोता भी है। लच्छेदार भाषण, प्रवचन, शानदार शैली मे लिखे लेख, कविता और कीमती कागज पर पक्की जिल्द तथा नयनभिराम आवरण पृष्ठ की किताबे भी तो शब्दो का व्यापार ही है।शब्दो को ब्रहृमा की सन्ज्ञा दी गई है । शब्द कि शक्ति अनन्त है किन्तु रोजी रोटी, नाम प्रतिष्ठा के लिये शब्दाडम्बर तो शब्दो का व्यापार ही हुआ न ? मेरी १००ग्राम खोपडी के विचारो का अन्त नही। सोचते सोचते पुरे ब्रहृमाण्ड घुम आई। कही शब्दो की प्रशसा और चापलुसी मे उपयोग किया जा रहा है और कही विरोधियो की आलोचना मे शब्दो को अगारे बना कर बरसा रहे है। शब्दो के शिल्पी या कलमजीवी दुसरो की आलोचना एवम बुराईयो की ध्जीया उडाने मे भूल जाते है कि धुल उन पर भी छाई हूई है, मल उनके मन एवम आचरण में भी है।

दो दिन पहले चिठाचर्चा मे पढा,- कि किसी ने लावण्या दीदी पर किस तरह अभद्र तरिके से अपनी दिमागी अशुद्रता का परिचय देते हुऐ घटिया तरिके से टिका कि इससे ज्यादा दुख तो तब हुआ कि महिलाओ की अवाज बनी उसी ब्लोग ने उस टीपणी को प्रसारित किया (बाद मे हटा भी ली) । क्या टिपणीको प्रसारित करते समय यह जरुरी ना समझा गया कि किसी को ठेस पहुचाई जा रही है ? मेरा ऐसा मानना है कि टीपणी करने वाला तो सजा के काबील है ही छापने वाला भी उसका हीस्सेदार बने।

किसी खबर को सनी सनी बनाकर, करना, लिखना, एवम छापना यह सिर्फ और सिर्फ भिड को आकर्षित करने का अनुचित तरिक है। जिसे मै व्यापार कहता हू। लावण्याजी आप फाईटर है जिस किसी ने भी आपके परिवार पर

जाति -रन्ग -भेद- धर्म- कर्म पर कटाक्ष कि उससे आप बिल्कुल भी अशान्त न हो क्यो कि पुरा का पुरा हिन्दी ब्लोगजगत ने इसका जोरदार तरिके से विरोध जता चुकी है। और सम्भवतः सभी ने आपके पक्ष को ही मजबुती प्रदान कि है।

डॉ, बाबा साहेब अम्बेडकर के जिवन मे इस तरह कि मुश्किले कई बार आई, पर उन्होने उसका मुकाबला किया और उन्होने विजय हासिल कि।

दूसरो को नीचा दिखाने या किसी का चरित्र हनन करने के लिये भी शब्दो का दुरउपयोग बहुत होने लगा है।

क्या यह उचित है? क्या इसमे धर्म, जाति, समाज, व्यक्ती का कुछ भी भला होता है ? भला होगा ?

शब्द से अधिक शक्ति मोन मे है। प्रचार से ज्यादा शक्तिशाली आचार होता है। हम बोलते है लिखते है लेकिन स्वय को ही पता नही होता कि क्या बोल रहे है ? क्या लिख रहे है? इतनी भावुकता या क्रोध मे लिखते है कि वह केवल स्तुति या निन्दा बन कर रह जाती है। शब्द जीवन व्यवहार का प्रतिबिम्ब होना चाहिऐ

अतः शब्द कि अनन्त शक्ति को नमन करते हुऐ इनको अपने स्वार्थ, लोभ, बैरभाव, के लिऐ दूषित ना करु।

वचन सम्भारि बोलिये, वचन के हाथ ना पाव।

एक वचन ओषद करे एक करेगो घाव॥

हे प्रभु यह तेरापथ



भारतीय होने की निष्ठा

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" मुझे यह यह अच्छा नही लगता , जब कुछ लोग कहते है की हम पहले भारतीय है और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान या जैन,अथवा सिख , ईसाई है मुजे यह स्वीकार नही हैधर्म , संस्क्रती, भाषा तथा राज्य के प्रति निष्ठा से ऊपर है भारतीय होने की निष्ठामेरा एसा मानना है की लोग पहले भी भारतीय हो अंत तक भारतीय रहे -भारतीय के अलावा कुछ नही ." -हे प्रभू तेरा-पथ