शब्द-अविष्कार
मै आजकल शब्दो के महासमुन्द्र मे डूब रहा हू। कुछ समय से हिन्दी ब्लोग जगत के भिष्मपितामाह कहे जाने वाले श्री ज्ञानदत्तजी नये शब्द-अविष्कार करने की ठान बैठे है। कुछ शब्दो को आम जनता के लिए खोलकर पान्डेजी सुकुन भरी ब्लोगेरी कर रहे है। उनका यह इवेन्ट कब तक कम्पलिट होगा यह तो बहृमाजी को पत्ता है या स्वय पान्डेजी को।ज्ञान दतजी हमेसा नऍ शब्दो की जुगाड मे रहते है। वो नये शब्दो को भू-भाग पर लाना चाहते है।
उन्होने नई शब्द सरचना की कोशिस की । आप देखे वो अब तक कोन-कोन से नए शब्दो को पाठको को पेल चुके है।
* इण्टरनेटीय डोलची
* टंकियाटिक पोस्ट
* चिठेरे लुंगाड़े
* मैं नये शब्द तलाश रहा हूं – बड़े और गरुह शब्द नहीं; पर नयापन लिये सहज ग्राह्य शब्द। लगता है कि पुस्तकों की ओर लौटना होगा। हिन्दी पुस्तकों की ओर।
अगर आपको पाठक बांधने हैं तो मौलिकता युक्त लिखें या फिर अश्लील। दुन्नो नहीं है तो काहे टाइम खोटा किया जाये।
* साइबरित आप को नया शब्द लेना होगा उसके लिये। क्या है वह? साइबरित्य है?
खैर कोई बात नहीं अगर आपको "साइबरित्य" शब्द पसन्द नहीं आया। नया शब्द गढ़िये। असल में आपको नया शब्द गढ़ना ही होगा। एक नया फिनॉमिना पुराने शब्द से समझाया नहीं जा सकता!
* डिसिप्लिनाचार्यों
* चिरकुटई
* पिल
* ठेलिये |

शब्दो के भवर मे आम आदमी इतना फ़स चुका है कि अब वो डरने लगा है। आदमी के आगे-पिछे, उपर निचे, दाए-बाए
शब्द ही शब्द है।
सुबह उठते ही टीवी खोलो तो शब्द। आधी रात को निन्द उचट जाए, टीवी खोलो तो शब्द हाजिर। समाचार पत्र देखो तो वहा भी शब्द कुण्डली मार कर फ़ुफ़कार रहा है। ऎसा लगता है कि अदने से आदमी के ऊपर टनो शब्द उडेले जा रहे है। इतना शब्द वजन आदमी पर डाला जाए तो बेचारा आदमी घुटकर तडफ़ तडफ़ कर मर जाएगा। पर ताजुब है कि इतने इतने
शब्दो के निचे दबा आदमी जिन्दा है। शब्द फ़ैकना लिखाडो की मजबुरी है झेलना आम आदमी की। आम आदमी को अर्थसयोजन से कुछ प्रयोजन नही है, न सन्दर्भ से, न शब्दो के प्रसग से मतलब है, न शब्दो के भाव से, नेता हो या कवि रेडियो जोकी हो या समाचार वाचक, चिठ्ठा लेखक हो या चिठ्ठी लिखने वाला नेता या मन्त्रि सबके पास केवल शब्द है।
एक दिन तो हद हो गई मेरा मोबाईल घनघनाया. मैने उठाया. उघर से एक युवक की आवाज (शब्द) आ रही थी- "हाय! आप बहुत क्यूट लग रहे हो . मुझसे दोस्ती करोगे ? ". *शब्द सुनते ही घबराहट मे मोबाईल छूटकर जमीन पर गिर गया। जमाना बडा खराब हुआ पडा है जी! आदमी से दोस्ती के नाकारात्मक अर्थ भी हो सकते है। शब्दो का क्या ठीकाना. |
हर पल हर घडी इतने शब्द की मै
निशब्द होना भूल रहा हू। मेरी भी मजबुरी है क्यो की मेरा धन्धा ही शब्दो का है। जिन्हे मै सलाह दे रहा हू वह भी शब्द प्रपच है। जिसे भाषण सा प्रवचन कहा जाता है वह शब्द की माया है। यहा तक कि कविता, कहानी, उपन्यास शब्दो की जादुगरी है।
यह जो मै लिख रहा हू शब्दो का करतब है। कोई पढे ना पढे मेरी बला से।
मेरे एक परिचित मेरा लेख कभी नही पढते। एक तो मै उनसे पुछता या पढने का आग्रह करता नही। पुछ लिया तो कहेगे- "सारी! मै व्यस्त था।" "किस दिन छपा था ?" हॉ, उनकी कोई किताब छप जाए तो जबरन थमा जाएगे, और फ़ोन कर पूछेगे भी-" कैसी लगी ?" मै उनसे कैसे कहू कि वहॉ मात्र शब्दो की बाजीगरी है। ताजुब होता है इतने-इतने शब्दो की जरुरत किसे है ? |
एक दिन एक कार्यक्रम मे गया बोलने कि मेरी जरा भी ईच्छा नही थी। मै दो धण्टे ढेरो शब्द सुनता रहा। हद तो तब हो गई जब अन्त मे मुझसे कहा गया
-"आप दो शब्द बोल दे!" शब्द की ऎसी खुजली मची की मै दो के बजाय दो हजार शब्द बोल गया। पाच-सात शब्द तोडको ने सैकडो शब्द ढाई घण्टे मे उडेल दिऎ। 100-125 सुनने वाले तो शब्दो के वजन तले इतना दब गऎ की बैठे-बैठे कुर्सी पर ही लुडक गऎ।
बाद मे सोचा, इन शब्दो की न मुझे जरुरत थी न श्रोताओ को। क्या शब्द के बिना जीवन, जीवन नही होता. ?
आजकल एक शोघ पत्र तैयार कर रहा हू शब्द की उत्पति कहा से हुई। प्रथम शब्द किसने बोला। यही शोघ का विषय है। इस शोघ के लिए मुझे लाखो शब्द की जरुरत पडेगी। शब्दो का भण्डार जमा करके मे समझाऊगा कि
शब्द क्या है ?
हालाकि इसका यह अर्थ नही की मै शब्द समझ गया हू। मुजे केवल दुसरो को समझाना है।
अपने आपको औरो से श्रेष्ट "शब्द-लिखाडीया" दिखाने के लिऎ शब्दो की कान खिचाई करना फ़ैशन बन पडा है,मुह हिन्दी का-टाग अग्रेजी की,कभी मुह भोजपुरी का और टाग हिन्दी की और पुछ अगेजी की। भाई यह कोनसा शब्द सर्जन है
?
कहते है- बिटवा! (बेटा) इबे (अब) तु कन्फ़ियुजीया(भटकना) गया है। जी! मै शायद ऎसे हजारो नये शब्द सर्जना से डर गया हू ।
कैसे कैसे शब्द होते है। शब्दो मे भी कई जातिया है। रुलाने वाला शब्द, हसाने वाला शब्द, कोई डरानेवाला शब्द, कोई शरीर मे रन्ग तरन्ग रोमाचित करने वाला शब्द, सेक्सी शब्द। इसमे सबसे खतरनाक गाली-गलोज वाली शब्द-माला है। कुछ वर्षो से गालिया देने वाले शब्दो का जोर शोर से विस्तार और सर्जन दोनो एक साथ हुआ है।
सोचता हू शब्दो को विश्राम देकर मोन व्रत रहने के प्रयास करके देखु शायद लोग सुखी हो जाए.
नोट यह मेरी सोच है इस लेख को मेने व्यगात्मक शैली मे लिखा है। आदरणीय ज्ञानदतजी की नई शब्द सजृना की सोच ने मुझे लिखने के लिऍ प्रेरित किया है। इसे पढते समय मन हल्का बनाए रखे। क्यो की इसमे जो भी नाम सन्दर्भ के तोर पर लिए गए है वो हमारे आदरणीय है। फिर भी कही कोई बात से कष्ट हो तो मै क्षमा चाहता हू।
मुम्बई टाईगर