मूल्य-परम्परा-संस्कार-प्रतिष्टा-कुल परम्परा

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मैंने इंशानी जीवन के कई पहलुओ को एक ही घटना मे तोलने का प्रयास किया. करीब से एक बाप बेटे के कई उलझनों को मैने समाज परिवार ओर व्यक्ति के वैज्ञानिक तथ्यों के करीब महसूस किया. शायद जीवन का यह फलसफा हमारे समझ में आ जाए तो आपसी कलह मनमुटाव परिवारिक चिंताए दूर हो सकती है.


किसी के चेतन मन तथा अवचेतन मन में भयंकर संघर्ष छिड़ा हुआ था. चेतन मन उसे लडकी की ओर खींच रहा था तथा अवचेतन मन अपनी कुल परम्परा की ओर .उसकी मनो दशा इतनी मोहग्रस्त हो गई थी कि उसे ना तो दूकान पर शान्ति मिलती न ही घर पर.

मूल्य-: मूल्य तो हमेशा ही सापेक्ष होते है. एक समय में जिस चीज का जो मूल्य होता है ,दुसरे समय में उसका इतना मूल्य नही होता है. एक व्यक्ति के लिए जिस चीज का मूल्य होता है दुसरे के लिए नही भी होता है!

परम्परा -: हमक कुलीन परम्परा को वहन कर रहे है. हम एक परिवार की सीमा में भी आबद्ध है. इस द्रष्टि से तुम्हारा निर्णय मुझे ओर मेरा निर्णय तुम्हे प्रभावित करता ही है.

संस्कार-: संस्कारों पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार नही हो सकता! एक धनी ओर उच्च कुल में पैदा होने वाले व्यक्ति के संस्कार भी खोटे हो सकते है ओर एक गरीब तथा नीच माने जाने वाले कुल में पैदा होने वाले व्यक्ति के संस्कार भी अच्छे हो सकते है.

प्रतिष्टा -: मै यही सोच रहा हु कि परिवार की प्रतिष्ठा तथा व्यक्ति की प्रतिष्ठा में दुसरे शब्द में समाज की प्रतिष्ठा ओर व्यक्ति की प्रतिष्ठा में कोन ज्यादा मूल्यवान है ?
शायद समाज व्यक्ति की रक्षा करता है व्यक्ति को समाज की सुरक्षा रक्षा करनी चाहिए.दोनों मिलकर ही एक सुव्यवस्था को उजागर करते है.

क्षणिक -: शादी कोई ऐसा क्षणिक देह बंधन नही है जिसे व्यक्ति हडबडी में जोड़ ले .बल्कि यह तो एक ऐसा आत्मीय सम्बन्ध है जिसे बहुत सोच समझकर निर्धारित करना पड़ता है.

समाज सरचना का यह गहरा एवं गुढ़ रहस्य वैज्ञानिक आधार लिए हुए प्रतीत होता है.आजकल लव मैरिज आम बात हो गई है. हरेक समाज में यह प्रचलन चल पड़ा है. ऐसे में युवाजन जाती, धर्म, गोत्र, का पलायन कर अपने सुखी वैवाहिक जीवन क़ी अपेक्षा करते है. कुछ रिश्ते कामीयाबी के शिखर पर चढ़ भी जाते है कुछ रिस्तो में विराम सा आजाता है. घर परिवार एवं समाज के बनाए नियमो को हमारी भलाई एवं रक्षा हेतु बनाए गए थे पर आजकल धडल्ले से युवाजन उक्त नियमो को तोड़ मरोड़ रहे है. कारण बताते है-" हम शिक्षित है, २१वी शदी में रहते है, ओर हम हमारा भला बुरा समझते है." यह तर्क ही सही नही है ! जन्मदाता विवश है सामाजिक परम्पराओं क़ी अहवेलनाओ को देखने के लिए ...युवाजनो द्वारा ऐसी बातो को किसी दकियानूसी विचारों का वास्ता देना यह उनकी भूल साबित होने जैसा है.

अंत में एक पक्ति में अपनी बात खत्म करना चाहता हु
"सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से,
राष्ट्र्य स्वयम सुधरेगा !!"

5 comments

Arvind Mishra 8 फ़रवरी 2010 को 6:34 am बजे

अच्छी व्याख्याएं

Udan Tashtari 8 फ़रवरी 2010 को 7:15 am बजे

बहुत उम्दा आलेख.

विवेक रस्तोगी 8 फ़रवरी 2010 को 8:06 am बजे

सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से,
राष्ट्र्य स्वयम सुधरेगा !!

बिल्कुल सही, बहुत गहन बातें।

ताऊ रामपुरिया 8 फ़रवरी 2010 को 10:41 am बजे

बहुत उपयोगी और गंभीर आलेख.

रामराम.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 8 फ़रवरी 2010 को 10:19 pm बजे

पोस्ट अच्छी लगी!
इसलिए चर्चा मंच में चुरा ली गई है!